वेब वार्ता (न्यूज़ एजेंसी)/ अजय कुमार
लखनऊ। हर साल जब साइबेरिया से हज़ारों किलोमीटर उड़कर पक्षी भारत की नदियों और तालाबों पर उतरते हैं, जब हाथियों के झुंड नए चरागाह तलाशते हुए जंगलों से गुज़रते हैं, या जब महासागरों में व्हेलें लंबी दूरी तय करती हैं—तो ये दृश्य केवल प्रकृति की खूबसूरती ही नहीं, बल्कि धरती के पारिस्थितिक संतुलन का प्रतीक भी हैं। लेकिन अब यही यात्राएँ खतरे में हैं। जलवायु परिवर्तन ने प्रवासी प्रजातियों की इस परंपरागत जीवन-धारा पर गहरा असर डालना शुरू कर दिया है।
संयुक्त राष्ट्र की कन्वेंशन ऑन द कंज़र्वेशन ऑफ माइग्रेटरी स्पीशीज़ (CMS) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, जलवायु संकट ने पक्षियों से लेकर हाथियों और समुद्री जीवों तक की प्रवास यात्राओं को असुरक्षित बना दिया है। फरवरी 2025 में ब्रिटेन के एडिनबरा में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला में 73 विशेषज्ञ—वैज्ञानिक, वाइल्डलाइफ़ मैनेजर्स और एनजीओ प्रतिनिधि—इस मुद्दे पर एकजुट हुए थे। उनकी चर्चाओं का नतीजा यह रिपोर्ट है, जो अगले साल ब्राज़ील में होने वाले CMS COP15 सम्मेलन का आधार बनेगी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्कटिक में रहने वाले पक्षियों के जीवन चक्र में बड़ा बदलाव आ रहा है। तापमान बढ़ने से कीड़ों के उभरने का समय और पक्षियों के अंडे देने का समय मेल नहीं खा पा रहा, जिससे चूजों की जीवित रहने की संभावना घट रही है। भारत और श्रीलंका में एशियाई हाथियों के प्राकृतिक रास्ते कट रहे हैं, जंगलों की कनेक्टिविटी टूट रही है और इंसान-हाथी टकराव बढ़ रहा है। वहीं समुद्र का बढ़ता तापमान नॉर्थ अटलांटिक की राइट व्हेल को लंबी और खतरनाक राहें लेने के लिए मजबूर कर रहा है। हिमालयी क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ मस्क डियर, हिमालयी तीतर और स्नो ट्राउट जैसी प्रजातियाँ ऊँचाई की ओर धकेली जा रही हैं, लेकिन सीमित जगह के कारण उनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। अमेज़न में नदी का तापमान 41 डिग्री सेल्सियस तक पहुँचने से डॉल्फ़िन की मौतें हुईं, जबकि मेडिटेरेनियन सागर में हीटवेव्स ने व्हेल और डॉल्फ़िन की रेंज 70 प्रतिशत तक घटा दी है।
विशेषज्ञों का मानना है कि प्रवासी प्रजातियाँ केवल अपनी सुरक्षा के लिए नहीं, बल्कि पूरी धरती की सेहत के लिए अहम हैं। हाथी जंगलों में कार्बन स्टोरेज क्षमता बढ़ाते हैं, वहीं व्हेल समुद्रों में पोषक तत्वों का आदान-प्रदान करती हैं। सीग्रास मैदान, जो समुद्री जीवों और कार्बन स्टोरेज के लिए जीवन रेखा हैं, वे भी अब जलवायु संकट के कारण क्षरण का शिकार हो रहे हैं।
CMS की कार्यकारी सचिव एमी फ्रैंकल ने कहा, “प्रवासी जानवर धरती का अर्ली-वार्निंग सिस्टम हैं। अगर ये संकट में हैं, तो समझिए कि खतरा इंसानों के लिए भी बढ़ रहा है।” विशेषज्ञों ने जंगलों में इकोलॉजिकल कॉरिडोर, समुद्रों में डायनेमिक मैनेजमेंट और आदिवासी ज्ञान के समावेशन पर जोर दिया है। असल सवाल यही है कि क्या हम समय रहते इन यात्राओं को बचा पाएँगे, या आने वाली पीढ़ियाँ सिर्फ किताबों में पढ़ेंगी कि कभी हाथियों के झुंड जंगल पार करते थे और व्हेलें महासागरों में गाती थीं।