– उनका कथन और आचरण सनातनियों के लिये अप्रमाण: शङ्कराचार्य
वेब वार्ता (न्यूज़ एजेंसी)/ अजय कुमार
वाराणसी। कथावाचक मोरारी बापू द्वारा अपनी पतनी के मृत्योपरान्त किये गये व्यवहार से संत समाज में कड़ी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। जगद्गुरु शङ्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती ने १००८’ ने कहा है कि जब तक मोरारी बापू धर्ममर्यादा में नहीं स्थित होते तब तक हम उनका चेहरा भी न देखेंगे। धर्म के मामलों में आचार्य को दण्ड देने का भी अधिकार है।
आदि शंकराचार्य ने मठाम्नाय महानुशासन में लिखा है कि –
आचार्याक्षिप्तदण्डांस्तु, कृत्वा पापानि मानवाः।
निर्मलाः स्वर्गमायान्ति, सन्तः सुकृतिनो यथा॥
तात्पर्य यह है कि आचार्य से दण्ड भोग कर पापी मनुष्य भी निर्मल होकर उसी तरह उत्तम लोक की यात्रा करते हैं जैसे पुण्यात्मा जन।
शिष्टों/ धर्माचार्यों को स्मृतियों में शारीरिक दंड देने के अधिकार आचार काण्ड, प्रायश्चित्त कांड और व्यवहार कांड में दिये गये हैं, जिन्हें वर्तमान भारत के संविधान में इन्हें दण्ड संहिता के अधीन कर दिया गया है, पर इसके अतिरिक्त जिन अन्य दण्डों के लिए राज सत्ता ने कोई दण्ड विधान नहीं बनाया है, उन काण्डों से संबंधित मामलों में दंड देने का आचार्यों का आज भी अधिकार सुरक्षित है। सबसे बड़ा दंड जो आचार्य देते रहे हैं वह है समाज से तब तक के लिए बहिष्कार जब तक कि संबंधित व्यक्ति प्रायश्चित्त कर शुद्धि नहीं प्राप्त कर लेता है। ब्रह्मसूत्र के बहिरधिकरण अध्याय में मनुवचन का शारीरक भाष्य करते हुए स्वयं आदि शंकराचार्य ने बताया है कि बहिष्कृत करने का तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ पुरुष धर्मभ्रष्ट व्यक्ति के साथ पारिवारिक भोजन, अध्ययन अध्यापन और यज्ञ यागादि न करे। यही दंड पराशर माधवीय में भी जगद्गुरु शंकराचार्य विद्यारण्य ने स्मृति वचन उद्धृत करते हुए बताया है।
बताते चलें कि मोरारी बापू समय समय पर अपने आचरणों और वक्तव्यों से अशास्त्रीय कार्यों को प्रोत्साहन देते हुए दिखाई दिए हैं। चिता की अग्नि में विवाह संपन्न कराने जैसे जाने कितने इनके अशास्त्रीय कृत्य सुने जाते रहे हैं। पत्नी के दिवंगत होने पर उसके उत्तर कृत्यों को नकारना और यहाँ तक कि उसका मरणाशौच भी न मानते हुए काशी जैसी धर्मनगरी में आकर विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में जाकर पूजा अर्चना करना और आसन पर बैठकर राम कथा श्रवण कराने जैसा अशास्त्रीय कार्य इनके द्वारा किया जा रहा है।
शङ्कराचार्य ने कहा कि काशी और देशभर के अनेक नागरिकों, विद्वानों, पंडितों और धर्माचार्यों द्वारा इनके इन अपकृत्यों के बारे में प्रश्न उठाने और विरत होने की प्रार्थना भी की गई। तब इन्होंने क्षमा याचना की शब्दावली तो कही पर मंदिर शुद्धिकरण के बारे में कुछ नहीं किया और कथा भी स्थगित नहीं की। बल्कि यह कहा कि मैं निम्बार्की हिंदू हूँ। मेरे पास भी शास्त्र हैं। लेकिन एक सप्ताह से अधिक समय बीत जाने के बाद भी जनता के समक्ष उन्होंने कोई शास्त्र वाक्य नहीं रखा जिसमें किसी गृहस्थ हिंदू धार्मिक के मरने पर उत्तर क्रिया और अशौच का निषेध किया गया हो। ऐसे में यह सिद्ध हो गया कि न तो उनके पास कोई शास्त्र है जिसे वे प्रदर्शित कर अपने कृत्य को औचित्य पूर्ण सिद्ध कर सकें और न ही उनमें शास्त्रों के प्रति श्रद्धा है कि शास्त्रों का ध्यान दिलाए जाने पर वे अपने अशास्त्रीय कार्य से विरत हो सकें। इसलिए हिन्दू धर्मशास्त्रों में श्रद्धाहीनता और मिथ्या दंभ का प्रदर्शन करने के धार्मिक अपराध में संलिप्त पाए जाने पर उन्हें हम धर्म दण्ड देते हैं कि ‘आज से मोरारी बापू का चेहरा देखना भी हम पाप समझेंगे और उन्हें भी जीवन में हमें देख पाने का अवसर तब तक के लिये समाप्त करते हैं जब तक कि वे शास्त्र मर्यादा में स्थित नहीं हो जाते हैं। साथ ही उन्हें धर्म के मामले में ‘अप्रमाण’ घोषित करते हुए सनातनी जनता को सूचित करते हैं कि उनके किसी भी आचरण और उपदेशों को प्रमाण न मानें और उसकी उपेक्षा करें। हम निम्बार्क संप्रदाय और उनकी सभा तथा उनके आचार्य श्रीजी का सम्मान करते हुए उनसे भी इस संदर्भ में जनता का मार्गदर्शन होने की अपेक्षा करते हैं। शास्त्र सूतक में हमें जिन कार्यों को करने से रोकता है, न करने पर भी उनका पुण्यफल हमें मिलता ही है। सवाल करने न करने का नहीं, सवाल शास्त्र आज्ञा को मानने का ही होता है। इसलिए सूतक में धर्मकार्य न करना ही धर्म है।
