– ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं।
वेब वार्ता (न्यूज एजेंसी)/ अजय कुमार वर्मा
वाराणसी 21 अप्रैल। मनुष्य का शरीर प्राप्त होने पर भी, भगवदर्पण बुद्धि विकसित होने के बाद भी यदि हम योगीजनों के मार्ग (सन्यास-मार्ग) का अवलम्ब ना लें तो शायद ये इस दुर्लभ मानव शरीर के साथ ये सबसे बडा अन्याय होगा।इसलिए समय से तत्वोपलब्धि हो जाए इसके लिए जीवन की सबसे बडी उपलब्धि सन्यास की उपलब्धि है।उक्त उद्गार जगद्गुरु शङ्कराचाय अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती ने अपने 21वें संन्यास दिवस के उपलक्ष्य में गंगा पार आयोजित संन्यास समज्या समारोह के अवसर पर काशी के समस्त दण्डी संन्यासियों के समक्ष व्यक्त किए। सन्यास समज्या के अवसर पर अमेरिका निवासी प्रख्यात लेखक व बेस्ट सेलर एवार्ड से पुरस्कृत अनंतरमन विश्वनाथन की शंकराचार्य और गौमाता से सन्दर्भित पुस्तक का लोकार्पण हुआ। साथ ही यतीन्द्रनाथ चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित स्वामिश्री के 21वें दंड ग्रहण की स्वामिश्री सन्यास समज्या स्मारिका का लोकार्पण भी हुआ।
उन्होंने कहा कि जीवन की सबसे बडी उपलब्धि ज्ञानप्राप्ति है क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः ज्ञान के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है । शंकराचार्य जी का सन्यास समज्या काशी के सन्तों व भक्तों द्वारा महोत्सव के रूप में मनाया गया।
वीरक्त दीक्षा ग्रहण कर चार ब्रम्ह्चारी हुए शंकराचार्य परम्परा को समर्पित:
सन्यास समज्या महोत्सव के प्रथम सत्र में प्रातः काल विरक्त दीक्षा लेकर चार ब्रम्ह्चारी शंकराचार्य परम्परा को समर्पित हुए।सपाद लक्षेश्वर धाम सलधा के ब्रम्ह्चारी ज्योतिर्मयानंद ने शंकराचार्य से दंड सन्यास की दीक्षा ग्रहण की और अब से वे अपने नए नाम सृज्योतिर्मयानंद सरस्वती के नाम से जाने जाएंगे।तीन अन्य ने भी विरक्त दीक्षा ग्रहण की जिसमे गुजरात के पण्ड्या नैषध अब से केश्वेश्वरानंद ब्रम्ह्चारी, बंगाल के वैराग्य अब साधु सर्वशरण दास और तीसरे ब्रम्ह्चारी को पुरुषोत्तमानंद ब्रम्ह्चारी के रूप में जाना जाएगा।सन्यास दीक्षा का कार्यक्रम आचार्य पं अवधराम पाण्डेय के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ। साथ ही सैकड़ों दंडी सन्यासियों का गंगापार षोडशोपचार पूजन कर उपहार समर्पित किया गया।
सन्यास समज्या में अपना उद्बोधन व्यक्त करते हुए स्वामी इंदुभवानंद ने कहा कि आज शंकराचार्य परम्परा को चार सन्यासी समर्पित हुए हैं जिससे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। नर दंड ग्रहण करने मात्र से नारायण हो जाता है।उन्होंने के कहा कि दंड सन्यास ग्रहण करने वाले सन्यासी वाणी, शरीर व चित्त में से भी दंड ग्रहण करता है। सन्यासी को कामनाओं से मुक्त होना चाहिए।
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