वेब वार्ता (न्यूज एजेंसी)/ अजय कुमार वर्मा
नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में प्राकृत भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्रदान करने का ऐतिहासिक निर्णय लिया है। इस फैसले के तहत प्राकृत के साथ मराठी, पाली, असमिया और बांग्ला भाषाओं को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है। प्राकृत, जो मध्य इंडो-आर्याई भाषाओं के समूह में शामिल है, भारत की समृद्ध भाषाई और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने में अहम भूमिका निभाती है। इस मान्यता के माध्यम से प्राकृत के ऐतिहासिक और साहित्यिक योगदान को एक नई पहचान मिली है, जिससे इस भाषा का अध्ययन और संरक्षण नए सिरे से संभव होगा।
शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने का महत्व: प्राकृत को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने से इसकी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्ता को व्यापक रूप से पहचाना जाएगा। इस मान्यता के माध्यम से प्राकृत भाषा के अध्ययन और संरक्षण के लिए सरकारी स्तर पर नई योजनाओं को लागू किया जाएगा, जिससे इसके साहित्य और अभिलेखीय धरोहर को संरक्षित किया जा सके। साथ ही, प्राकृत के अध्ययन को बढ़ावा देने और इसके साहित्यिक योगदान को पुनर्जीवित करने के लिए शैक्षिक संस्थानों में भी इसके पाठ्यक्रमों को शामिल करने के प्रयास किए जाएंगे। इसके माध्यम से प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता के महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का एक नया दृष्टिकोण मिलेगा, जो वर्तमान और भविष्य के लिए भी उपयोगी साबित होगा।
प्राकृत भाषा का ऐतिहासिक महत्व : प्राकृत भाषा की प्राचीनता और इसके साहित्यिक योगदान को विद्वानों और भाषा विज्ञानियों ने व्यापक रूप से स्वीकार किया है। आचार्यों जैसे पाणिनि, चंद, वररुचि और समंतभद्र ने प्राकृत के व्याकरणिक ढांचे को निर्धारित करने में योगदान दिया। प्राकृत का प्रभाव भारतीय इतिहास में उस समय भी था, जब महात्मा बुद्ध और महावीर ने अपने उपदेश इसी भाषा में दिए थे। इसके माध्यम से उनके विचार समाज के सभी वर्गों तक प्रभावी रूप से पहुँच पाए। प्राकृत भाषा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण थी, बल्कि क्षेत्रीय साहित्य में भी इसका गहरा प्रभाव रहा। इसमें काव्य, नाट्य और दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति ने खगोल विज्ञान, गणित, भूविज्ञान, रसायन विज्ञान और वनस्पति विज्ञान जैसे विभिन्न क्षेत्रों में भी योगदान दिया।
प्राकृत भाषा में अभिलेख और साहित्य : प्राकृत भाषा में लिखे गए अभिलेख भारतीय इतिहास के अध्ययन के महत्वपूर्ण स्रोत माने जाते हैं। मौर्य काल के अभिलेख, विशेषकर सम्राट अशोक और खरवेल के शिलालेख, प्राकृत में ही लिखे गए थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय प्राकृत का व्यापक रूप से उपयोग होता था। इस भाषा की साहित्यिक धरोहर में जैन और बौद्ध परंपराओं के महत्वपूर्ण ग्रंथ शामिल हैं, जो न केवल धार्मिक ज्ञान का भंडार हैं, बल्कि भारतीय इतिहास, कला और संस्कृति के संरक्षण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आचार्य भरत मुनि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्नाट्यशास्त्रश् में प्राकृत को भारतीय जनमानस की भाषा माना, जो कलात्मक अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक विविधता से समृद्ध है।
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