वेब वार्ता (न्यूज एजेंसी)/ अजय कुमार वर्मा
लखनऊ। हिंदू पक्ष साईं बाबा को भगवान मानता था और अपने रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करना चाह रहा था। जबकि मुस्लिम पक्ष अपने तौर-तरीके से अंतिम संस्कार करना चाहते थे। विवाद बढ़ने पर वोटिंग करानी पड़ी थी।
शिरडी साईं बाबा की पहचान को लेकर दशकों से विवाद चला आ रहा है। उनके जन्म स्थल और जन्म की तारीख पर भी विवाद है। कहीं उनके जन्म का साल 1836 बताया जाता है तो कहीं 1838। साईं बाबा ने अपने जीवन का ज्यादातर हिस्सा शिरडी में बिताया था। 18 अक्टूबर 1918 को जब उनका निधन तो अंतिम संस्कार पर भी खूब बखेड़ा हुआ। डॉ. सीबी सतपति अपनी किताब ‘शिरडी साईं बाबा: एन इन्स्पायरिंग लाइफ’ में साईं बाबा के आखिरी दिनों की कहानी को विस्तार से लिखा है। सतपति लिखते हैं कि शिरडी साईं बाबा को काफी पहले एहसास हो गया था कि उनकी महासमाधि का वक्त आ गया है। 15 अक्टूबर को निधन से कुछ दिन पहले ही उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। 28 सितंबर को उन्हें तेज बुखार आया और तीन दिन तक तपते रहे। बुखार के चलते खाना- पीना छोड़ दिया और उनका शरीर काफी कमजोर पड़ गया था।
साईं बाबा का निधन कैसे हुआ ?
उस दौर में निकलने वाली ‘श्री सनथप्रभा’ मैगजीन में भी साईं बाबा के आखिरी दिनों का ब्यौरा मिलता है। मैगजीन के मुताबिक निधन से पांच या छह दिन पहले साईं बाबा की नियमित दिनचर्या छूट गई। वह रोज लेंडीबाग और चावड़ी जाया करते थे, लेकिन बीमार होने के बाद जाना बंद कर दिया। 15 अक्टूबर की दोपहर द्वारकामाई में आरती हुई। इसके बाद सारे अनुयायियों को घर भेज दिया गया। करीबन पौने तीन बजे के आसपास साईं बाबा अपनी गद्दी पर बैठे। उस वक्त वहां उनके दो करीबी अनुयायी बयाजी अप्पा कोटे पाटिल और लक्ष्मी बाई मौजूद थे। साईं बाबा ने उनसे खुद को बूटी वाड़ा ले जाने को कहा।
साईं बाबा ने लक्ष्मी बाई को दिए एक-एक रुपए के नौ सिक्के :
डॉ. सतपति लिखते हैं कि साईं बाबा ने लक्ष्मी बाई को एक-एक रुपए के नौ सिक्के दिए। ये सिक्के देते हुए उनसे मराठी में कहा, ‘मुझे यहां अच्छा नहीं लग रहा है। मुझे बूटीवाड़ा ले चलो, शायद वहां अच्छा महसूस हो। इतना कहने के बाद उन्होंने अपना शरीर अप्पा कोटे पाटिल की गोद में झुका दिया और फिर वही आखिरी सांस ली। 15 अक्टूबर का वो दिन हिंदू और मुस्लिम कैलेंडर में बहुत अहम था। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक उस दिन रमजान का नौंवा दिन था तो हिंदू कैलेंडर के मुताबिक विजयादशमी थी।
मौत के बाद हुआ असली तमाशा :
साईं बाबा की मौत की खबर आग की तरफ फैल गई। हजारों की तादाद में उनके अनुयायी जुटने लगे। साईं बाबा को मानने वालों में हिंदू और मुस्लिम दोनों थे। मुस्लिम उन्हें मौलवी मानते थे जबकि हिंदू भगवान की तरफ पूजा करते थे। निधन के बाद साईं बाबा के करीबी अनुयायियों ने उनके अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू की। हिंदू पक्ष उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति-रिवाज से करना चाहता था, जबकि मुस्लिम पक्ष अपने रीति रिवाज से। डॉ. सतपति लिखते हैं कि हिंदू पक्ष ने बूटीवाड़ा में साईं बाबा की समाधि बनाने का फैसला किया। इसका आधार ये था कि साईं बाबा खुद निधन से पहले बूटीवाड़ा जाना चाहते थे। 15 अक्टूबर की शाम बूटीवाड़ा में समाधि के लिए खुदाई भी शुरू हो गई।
हिंदू-मुस्लिम पक्ष के बीच हुई वोटिंग :
हालांकि मुस्लिम पक्ष अपनी मांग पर डटा रहा। विवाद बढ़ा तो 15 अक्टूबर की शाम रहाटा पुलिस स्टेशन के सब इंस्पेक्टर को खबर दी गई। वो शिरडी पहुंचे, उन्होंने भी शिरडी साईं बाबा की समाधि बूटीवाड़ा में बनाने का समर्थन किया। हालांकि विवाद तब भी नहीं थमा। इसके बाद शिरडी के मामलातदार को विवाद में दखल देना पड़ा। उन्होंने हिंदू और मुस्लिम पक्ष के बीच वोटिंग करवाने का सुझाव दिया। मतदान हुआ तो हिंदू पक्ष भारी पड़ा। हिंदू पक्ष की तरफ से मुस्लिम पक्ष के मुकाबले दोगुने वोट पड़े।
कैसे हुआ साईं बाबा का अंतिम संस्कार ? :
डॉ. सतपति लिखते हैं कि वोटिंग के बावजूद मुस्लिम पक्ष नहीं माना। इसके बाद मामला अहमद नगर के कलेक्टर के पास पहुंचा। इस बीच जो लोग बूटीवाड़ा में समाधि बनाने का विरोध कर रहे थे, वह मान गए। इसके बाद पंचायतनामा बना और फिर मामलातदार ने साईं बाबा के सारे सामान को अपने कब्जे में ले लिया। उनके पार्थिव शरीर को बूटीवाड़ा ले जाया गया। वहां स्नान कराने के बाद चंदन का लेप किया गया और आरती की गई। इसके बाद साईं बाबा को महासमाधि दिलाई गई।
;नोटरू उपरोक्त तथ्य विभिन्न जानकारों के मत का संकलन है।ए स्वर्ण प्रिया इसकी सत्यता की पुष्टि नहीं करता है।द्ध
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