Breaking News

डाक्टर संजय कुमार निषाद ने बताये 7 राजनीतिक गुरुओं की विचारधारा

वेब वार्ता (न्यूज़ एजेंसी)/ अजय कुमार वर्मा
लखनऊ। निषाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष डाक्टर संजय कुमार निषाद ने 7 राजनीतिक गुरुओं के नाम और विचार धारा के बारे में चर्चा की है।
अब्राहम लिंकन: लिंकन के अनुसार लोकतंत्र की परिभाषा है कि लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन – प्रामाणिक मानी जाती जिसके अनुसार जनता की और जनता के द्वारा सरकार ही जनता के लिए होती है. इस परिभाषा में “सरकार” शब्द के प्रयोग में सम्पूर्ण जनता को शासक और शासित वर्ग में विभाजित कर दिया है तथा जनता के लिए प्रयोग ने चर्चा को “जनता की” और “जनता के द्वारा” से “जनता के लिए” हस्तांतरित कर दिया है. परिणामस्वरूप वास्तविक बिंदु ‘जनता की और जनता के द्वारा’ चर्चा में गौण हो गया है तथा “जनता के लिए” मुख्य बन गया है, शासक वर्ग ने स्वयं को विभिन्न राजनीतिक दलों में विभाजित कर वास्तविक विषय (जनता की जनता के द्वारा )को चर्चा से हटा ही दिया है. वर्तमान में किसी भी राजनितिक या बौध्दिक चर्चा में मुख्य विषय जनता के लिए ही होता है। अब्राहम लिंकन दास प्रथा और नस्लभेद के विरोधी थे। उन्होंने इसके प्रति लोगों को सजग व प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया था। इसलिए जॉन बूथ ने नस्ली घृणा से अभिभूत होकर उनकी हत्या कर दी थी।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस: नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक भारतीय राष्ट्रवादी थे, जिनकी भारत के प्रति देशभक्ति ने कई भारतीयों के दिलों में छाप छोड़ी है। उन्हें आजाद हिंद फौज के संस्थापक के रूप में जाना जाता है और उनका प्रसिद्ध नारा है तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा। आज उनकी जयंती को पराक्रम दिवस के रूप में मनाते हैं। वे महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए, जिन्होंने कांग्रेस को एक शक्तिशाली अहिंसक संगठन बनाया। आंदोलन के दौरान, उन्हें महात्मा गांधी ने चित्तरंजन दास के साथ काम करने की सलाह दी, जो उनके राजनीतिक गुरु बन गए। उसके बाद, वे एक युवा शिक्षक और बंगाल कांग्रेस स्वयंसेवकों के कमांडेंट बन गए। उन्होंने स्वराज अखबार शुरू किया।
महात्मा गांधी: जब पूरा देश शिक्षक दिवस मना रहा है, हम उन गुरुओं को याद कर रहे हैं जिन्होंने अनूठे विचारों से देश ही नहीं दुनिया की राजनीति को बदल कर रख दिया। ये वो गुरू हैं जिन्होंने सिर्फ राजनीति में ही नहीं आम लोगों में भी जीवन को भी नई दिशा दी है। जिन वर्गों ने कभी आंख ऊपर उठा कर देखने की नहीं सोची आज वे इन्हीं राजनीतिक गुरुओं के दिखाए रास्ते और नक्शे कदम पर चलते हुए, अपने अधिकारों को समझने लगे हैं।अब वे अपने हक और हकूक की बात करते हैं और अपनी बेहतरी के लिए हर मुमकिन कदम उठाने को तैयार रहते हैं…ये हैं वो पांच राजनीतिक चेहरे जिन्होंने देश- दुनिया की राजनीति को नया रंग दिया। गैरबराबरी, छुआछूत और अशिक्षा को समाज के लिए गांधी बेहद नुकसानदायक मानते थे। उनका मकसद समाज के सबसे निचले पायदान पर स्थित आम आदमी के आंसूं को पोंछना था, जिसे वे दरिद्र नारायण कहते थे। गांधी को आप राजनीति ही नहीं, समाजनीति, अर्थनीति और संस्कृति नीति के सबसे बड़े गुरु कह सकते हैं, जिनकी वजह से दुनिया के तमाम शांति प्रेमी, समानतावादी उनके शिष्य हैं।
भीमराव अंाबेडकर: बचपन से ही छुआछूत और गैरबराबरी का दंश झेलते रहे बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने दुनिया को समानता और कानून के शासन का पाठ दिया। महार जाति में पैदा अंबेडकर को हिंदू समाज में स्थित छुआछूत से इतनी घृणा हुई कि उन्होंने हिंदू समाज से अलग होने का फैसला तक कर लिया। अंबेडकर ने दलित जातियों में आत्मस्वाभिमान का भाव भरा। उनका कहना था कि जब तक दलित तो शिक्षा और स्वच्छता के हथियार से लैस नहीं होंगे, तब तक उनकी बात नहीं सुनी जाएगी। अंबेडकर की ही प्रेरणा थी कि गांधी जी ने अस्पृश्यता यानी छुआछूत के खिलाफ अभियान छेड़ा और आजादी के आंदोलन का हथियार बनाया। अंबेडकर के अनुयायियों की संख्या आज भी काफी है। अंबेडकर ने आजादी के बाद भारत को जो संविधान दिया, उसमें भी हर भारतीय नागरिक को बराबरी का दर्जा दिया गया है। रामविलास पासवान, रामदास अठावले और प्रकाश अंबेडकर जैसे राजनेता उन्हीं के सिद्धांतों पर आज भी राजनीति कर रहे हैं।
राममनोहर लोहिया: भारतीय राजनीति के चिर विद्रोही राम मनोहर लोहिया बेशक गांधी के शिष्य थे, लेकिन उनकी दृष्टि जर्मनी में अध्ययन के दौरान समाजवादी सोच के तहत विकसित हुई थी। पिछली सदी के दूसरे दशक के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री सोंबार्ट के शिष्य लोहिया ने देश में बराबरी वाले समाज का सपना देखा। लोहिया ने समाजवादियों को “सुधरो या टूट जाओ” का नारा दिया था। बराबरी का समाज को बनाने के लिए उन्होंने लोकसभा में “तीन आना बनाम पच्चीस हजार रुपए” की मशहूर बहस शुरू की। तब एक भारतीय आम आदमी बमुश्किल तीन आना रोजाना खर्च कर पाता था, जबकि प्रधानमंत्री पर तब पच्चीस हजार रोजाना का खर्च था।
दीनदयाल उपाध्याय: राजनीति सिर्फ सामाजिक कार्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक कार्य भी है, यह सोच पहली बार भारतीय जनता पार्टी के पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ के महासचिव दीनदयाल उपाध्याय ने दी थी। उन्होंने राष्ट्र की मौजूदा अवधारणा भूभाग और जनसंख्या से बाहर को बताया। उनका कहना था कि चित्ति यानी मन का विराट रूप राष्ट्र है। आज जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिकल्पना की खूब चर्चा होती है, उसे दीनदयाल उपाध्याय चित्ति यानी आत्मा का विस्तार मानते थे। उन्होंने एकात्म मानववाद का सिद्धांत भी दिया। जिसके मुताबिक चाहे बड़ा हो या छोटा, इंसान हो या जानवर, सबकी आत्मा एक रूप है। इसलिए किसी को भी परेशान करने या कष्ट देने का अधिकार किसी को नहीं है।
कांशीराम: पुणे में नौकरी करते हुए वामसेफ नामक संगठन बनाया। बहुजन वर्ग को आगे लाने और उनके उद्धार के लिए बहुजन एकता का दर्शन दिया। लेकिन जब चुनावी सफलता नहीं मिली तो अगड़े वर्ग का साथ लिया। 1993 में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके यूपी का चुनाव लड़ा और इतिहास बदल दिया। कांशीराम की ही देन है कि भारतीय समाज में पिछड़ा और दलित रहा दलित तबका अब अपने अधिकारों के लिए उठ खड़ा होने में हिचक नहीं दिखाता। अब उसे अपनी ताकत का आभास है और वह इसके लिए खुद को कांशीराम का कर्जदार मानता है।

Check Also

सारथी इंटर्नशिप प्रोग्राम से जुड़ने का UP एवं राजस्थान के युवाओं के लिए सुनहरा मौका

वेब वार्ता (न्यूज एजेंसी)/ अजय कुमार वर्मा लखनऊ। राजनीति में रूचि रखने वाले युवाओं के …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Live Updates COVID-19 CASES