वेब वार्ता (न्यूज एजेंसी)/ अजय कुमार वर्मा
दिल्ली। बुद्विमान् वही जो इहलोक में रहते अपना परलोक भी सुधार ले, सनातन धर्म सदा से ही समग्रता की बात करता है। इसमें कोई भी बात एकांगी नहीं है।इहलोक के साथ-साथ परलोक की भी चिन्ता हमारे धर्मशास्त्र करते हैं।हम सभी को इस लोक में अपने अभ्युदय के लिए प्रयत्न करते हुए परलोक को भी सुधारने का प्रयास कर लेना चाहिए। उक्त बातें ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शं्कराचार्य अविमुक्तेश्वरानन्दः सरस्वती ने नरसिंह सेवा सदन पीतमपुरा दिल्ली में चातुर्मास्य के अवसर पर आयोजित सायंकालीन सत्संग सभा में कही।
उन्होंने कहा कि लोग यह समझते हैं कि धन के अर्जन से सुख की प्राप्ति हो जाएगी, परन्तु संस्कृत के एक श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विद्या से विनय, विनय से पात्रता, पात्रता से धन, धन से धर्म और फिर धर्म से सुख होता है। यह प्रक्रिया साफ बताती है कि धन से जब व्यक्ति धर्म करेगा तभी उसे सुख प्राप्त होगा। सीधे धन से सुख नहीं पाया जा सकता।
शंकराचार्य के मीडिया प्रभारी सजंय पाण्डेय ने बताया कि शंकराचार्य ने सामान्य और विशेष दो प्रकार के धर्म की बात बताई। कहा कि ३७ प्रकार के सामान्य धर्म हैं जिसका पालन कोई भी कर सकता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के धर्म है जो तत् तत् विशेषजनों के लिए उल्लिखित हैं। आगे भारत देश के आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते का उल्लेख करते हुए शं्कराचार्य ने कहा कि संस्कृत का यह वाक्य मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है। जिस देश का आदर्श वाक्य संस्कृत में हो वह देश स्वतः ही हिन्दू राष्ट्र हो जाता है। इसके लिए अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो इस बात का कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन को धर्ममय बनाया जाए। जब भारत का प्रत्येक व्यक्ति धर्ममय जीवन जीने लगेगा तो अपने आप ही यह देश हिन्दू राष्ट्र हो जाएगा। केवल नामकरण कर देने से हिन्दू राष्ट्र नहीं होगा।
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