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लहसुन : कुदरत की अद्भुत औषधि

अजय कुमार वर्मा
सबसे पहले ये समझ लें कि लहसुन, प्याज खाने से पाप नहीं लगता बल्कि किसी का धन हड़पने, बेईमानी और छल कपट करने से पाप लगता है।
लशुनः–लशति खण्डयति रोगान् (अर्थात यह अनेक रोगों का नाश करता है)

आयुर्वेद के 5000 साल से भी प्राचीन शास्त्रों में लहसुन के चमत्कारी फायदे बताए हैं। लहसुन के बारे में २८८ से अधिक संस्कृत श्लोकों का उल्लेख पुरानी हस्तलिखित पांडुलिपियों में मिलता है।
अथ लशुनगुणानाह
रसोनो बृंहणो वृष्यः स्निग्धोष्णः पाचन: सरः।
रसे पाके च कदुकस्तीक्ष्णो मधुरको मतः॥२२१॥ भग्नसन्धानकृत्कण्ठ्यो गुरुः पित्तात्रवृद्धिदः । बलवर्णकरो मेधाहितो नेत्र्यो रसायनः ||२२२ ॥ हृद्रोगजीर्णज्वरकुक्षिशूल – विबन्धगुल्मारुचिकासशोफान्। दुर्नामकुष्ठानलसादजन्तु- समीरणश्वासकफांश्च हन्ति ॥२२३॥
(हरितकयादी वर्ग:भावप्रकाश निघण्टु)
लहसुन के गुण- लहसुन बृंहण (धातुवर्धक), वृष्य (वीर्यवर्धक), स्निग्ध, उष्णवीर्य, पाचक तथा सारक होता है और वह रस तथा पाक में कटु तथा मधुर रस युक्त, तीक्ष्ण, भग्न-सन्धानकारक यानी टूटी हड्डियों को तुरन्त जोड़ने वाला होता है।
लहसुन गले की गंदगी दूर करता है। कण्ठ को हितकारी, गुरु, पित्त एवं रक्तवर्धक, शरीर में बल तथा वर्ण को उत्पन्न करने वाला, मेधाशक्ति तथा नेत्रों के लिये हितकर और रसायन होता है।
लहसुन हृद्रोग, जीर्णज्वर, कुक्षिशूल, मल तथा वातादिक की विबन्धता, गुल्म, अरुचि, कास, शोथ, बवासीर, कुष्ठ, अग्निमान्द्य, कृमि, वायु, श्वास और कफ को नष्ट करता है। [२२१-२२३] हरीतक्यादिवर्गः रसोन लाभः अथ लशुनसेविनां हिताहितपदार्थानाह
मद्यं मांसं तथाऽम्लञ्च हितं लशुनसेविनाम्। व्यायाममातपं रोषमतिनीरं पयो गुडम्॥२२४॥ रसोनमश्नन् पुरुषस्त्यजेदेतान् निरन्तरम्॥२२५॥
अर्थात लहसुन सेवन करने वालों के लिये हितकर तथा अहितकर पदार्थ – मद्य, माँस तथा अम्लरसयुक्त भक्ष्य पदार्थ ये सभी लहसुन खाने वालों के लिये हितकर हैं और व्यायाम, आतप (धूप में फिरना), क्रोध करना, अत्यन्त जल पीना, दूध और गुड़ इन सभी को लहसुन खाने वाले पुरुष सदा छोड़ दें, क्योंकि ये सब अहितकर हैं। [२२४-२२५]
लहसुन के गुण और प्रयोग –
लहसुन एक बहुत ही उपयोगी औषधि है। आधुनिक विद्वानों ने भी इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
राजयक्ष्मा (Tuberculosis) एवं अन्य फुफ्फुसविकार, वातविकार, शैथिल्यप्रधान कुपचन (Atonic dyspepsia) एवं व्रण आदि के लिये यह बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है।
काश्यपसंहिता में लशुनकल्प नामक एक स्वतन्त्र अध्याय में इसका वर्णन किया गया है।
लहसुन उदर विकार, वातविकार नाशक ओषधि है। यदि इसे अनुपान के अनुसार इस्तेमाल करें, तो यह ह्रदय की रक्षा कर उसे मजबूत बनाता है। लहसुन पेट की अनेक बीमारी, अपच, गैस आदि रोगों में राहत देता है। धार्मिक ग्रन्थों में संभवतः इसके उग्रगन्ध के कारण इसका सेवन निषिद्ध माना है। लहसुन उष्ण, दीपन, पाचन, वातहर, स्वेदजनन, मूत्रल, उत्तेजक, कफनि:सारक, बल्य, वृष्य, रसायन, दुर्गन्धहर एवं उत्तम प्रतिदूषक (Antiseptic) है। लहसुन में जो उड़नशील तैल होता है उसका उत्सर्ग, त्वचा, फुफ्फुस एवं वृक्क द्वारा होता है। फुफ्फुस से उत्सर्ग के समय इससे कफ ढीला हो जाता है तथा उसमें के जीवाणुओं का नाश होकर कफ की दुर्गन्ध दूर होती है।
खाने के नियम, ये न करें –
लहसुन को एक दिन में 2 या तीन पोथी से ज्यादा नहीं लेना चाहिए। वातनाडी संस्थान पर लहसुन का उत्तेजक प्रभाव पड़ता है। अधिक मात्रा में लहसुन के प्रयोग से वमन, विरेचन एवं शिरःशूल आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं। बच्चों में इसका सावधानी के साथ प्रयोग करना चाहिये। अधिक मात्रा में सेवन करने पर कभी-कभी मृत्यु भी हो सकती है। गर्भिणी में लहसुनका प्रयोग नहीं करना चाहिये।
लहसुन का बाह्य प्रयोग त्वग्रोगकारक (Rubefacient) एवं प्रतिदूषक औषधि के रूप में किया जाता है। अधिक समय तक त्वचा के साथ सम्पर्क होने से स्फोट उत्पन्न होते हैं ।
यक्ष्मा दण्डाणु से उत्पन्न सभी विकृतियों जैसे फुफ्फुसविकार, स्वरयन्त्रशोथ, चर्मविकार, अस्थिव्रण एवं नाडीव्रण आदि में यह निश्चित लाभदायक सिद्ध हुआ है। लहसुन के रस को इनमें पिलाया जाता है तथा इसका स्थानिक उपयोग भी किया जाता है। स्वरयंत्र शोथ में इसका टिंक्चर २४ मि.ली. दिन में २, ३ बार देते हैं। पुराने कफविकार जैसे कास, श्वास, स्वरभङ्ग, श्वसनिका शोथ, श्वसनिकाभिस्तीर्णता (Bronchiectasis) एवं श्वासकृच्छ्र आदि में इसका अवलेह बनाकर उपयोग किया जाता है। लहसुन एवं वायविडङ्ग का सेवन भी लाभदायक है। बच्चों के कुकास में इसको ३, ४ घण्टे पर सुंघाया जाता है तथा इसके रस को पिलाते भी हैं जिससे कष्ट कम हो जाता है।
फुफ्फुसकोथ (Gangrene of lungs) में इसके टिंक्चर (५ में १) का उपयोग बहुत सफल रहा है। प्रारम्भ में इसको कम मात्रा में देना चाहिये तथा बाद में २० बूँद तक दिन में ३ बार देना चाहिये। थोड़े ही समय में ज्वर, कफ की दुर्गन्ध, स्वेदाधिक्य एवं अग्निमांद्य आदि दूर होकर लाभ होता है। इसी प्रकार खण्डीय फुफ्फुसपाक (Lobar pneumonia) में भी इसके टिंक्चर को ३० बूँद हर चार घण्टे पर जल के साथ देने से ४८ घण्टे के अन्दर ही लाभ मालूम होने लगता है तथा ५, ६ दिन में ज्वर कम हो जाता है। इन सभी विकारों में आन्तरिक प्रयोग के साथ-साथ इसको छाती पर लगाते भी हैं।
वायविडङ्ग के साथ इसका क्षीरपाक सभी वातविकार में जैसे गृध्रसी, कटिग्रह, अर्दित, पक्षाघात, एकाङ्गघात, उरुस्तम्भ, अपतन्त्रक एवं अपस्मार आदि में लाभदायक है। आन्तरिक प्रयोग के साथ इससे सिद्ध तैल की मालिश भी की जाती है। अपस्मार में लहसुन का फांट भोजन के पूर्व एवं पश्चात् देने का विधान है। अपतन्त्रक में इसको सुंघाया जाता है। इसी प्रकार ठण्डक लगने से उत्पन्न पीड़ा, जीर्ण आमवात एवं संधिशोथ तथा शिरःशूल आदि में इसको खिलाया जाता है तथा बाह्य लेप भी किया जाता है।
बच्चों के वात विकारों में इसकी मालिश विशेष लाभदायक है।
शैथिल्यप्रधान कुपचन (Atonic dyspepsia), आध्मान, उदरशूल, विसूचिका, वमन, गुल्म, उदावर्त, आंव एवं केंचुओं की बीमारी में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है।
केंचुआ (Round worms) में १०-३० बूँद रस दूध में मिलाकर पिलाते हैं । वातगुल्म में इसको पीसकर घृत के साथ खिलाने से लाभ होता है।
ग्रहणीव्रण (Duodenal ulcer) में भी इसको लाभदायक माना गया है। विषमज्वर में लहसुन को तैल या घृत के साथ सुबह खिलाने से लाभ होता है। आन्त्रिक एवं तन्द्राभ ज्वर (Typhoid and Typhus) के प्रतिबन्धन के लिये इसके टिंक्चर को ४ मि.ली. हर ४ या ६ घण्टे पर शरबत के साथ देते हैं।
यदि रोग के प्रारम्भ में ही इसका प्रयोग किया जायेगा तो ज्वर बढ़ने नहीं पायेगा । इसका उपयोग आन्त्रिक प्रतिदूषक (Intestinal antiseptic) औषधि के रूप में किसी भी अवस्था में किया जा सकता है। बच्चों को २ मि.ली. की मात्रा में शरबत के साथ पर्याप्त है।
हार्ट प्रॉब्लम यानी हृद्रोग में इसके प्रयोग से आध्मान कम होकर हृदय के ऊपर का दबाव दूर होता है जिससे हृदय को बल प्राप्त होकर मूत्र अधिक होने लगता है। सर्वाङ्गशोथ एवं जलोदर में लहसुन से लाभ होता है।
लहसुन के स्वरस को ३, ४ भाग जल में मिलाकर क्षत तथा दुर्गन्धित व्रण प्रक्षालन के काम में लाया जाता है जिससे वेदना कम होकर व्रण जल्दी ठीक होता है। कार्बोलिक् एसिड (Carbolic acid) की अपेक्षा इससे धातुओं को कम नुकसान होता है। इसी प्रकार शोथ, विद्रधि, बालतोड़ एवं दाद आदि पर इसका लेप लाभदायक है। लहसुनसे सिद्ध सर्षप तैल का उपयोग खुजली (पामा) में किया जाता है। रोहिणी (Diphtheria) नामक अत्यन्त उग्र गले के विकार में इसकी एक-एक कली चूसने को दी जाती है। ३, ४ घण्टे में ६० ग्रा. तक लहसुन दिया जाता है। विकृत कला (Membrane) के दूर होने पर दिन भर में ६० ग्रा. तक लहसुन देना चाहिये।
शिशुओं के लिये इसके रस को २०-३० बूँद हर चार घण्टे पर शरबत के साथ देना चाहिये । एक रोगी में नाडीव्रण (Sinus) के लिये इसके ताजे स्वरस को २ बूँद की मात्रा में हर छठे दिन स्थानिक सूचिकाभरण किया गया जिससे १० से.मी. गहरा नाडीव्रण २ महीने के अन्दर ठीक हो गया।
उपजिह्वा शोथ में लहसुन का स्थानिक प्रयोग सिल्हर नाइट्रेट् (Silver nitrate) की अपेक्षा अच्छा होता है।
कर्णशूल में इसके गुनगुने रस का या इससे सिद्ध तैल का उपयोग लाभदायक है। लहसुन का तेल से बाधिर्य कम सुनने में भी लाभ होता है।
आर्तवप्रवर्तक पीसीओडी या सोमरोग होने के कारण इसका उपयोग अनार्तव एवं कष्टार्तव आदि में किया जाता।
पशु, मवेशियों में ॲन्ध्राक्स (Anthrax) नामक रोग के प्रतिबन्धन के लिये एवं सर्पविषादि में बाह्यभ्यन्तर प्रयोग किया जाता है।
(लहसुन के बारे में ये जानकारी अमृतम पत्रिका के विशेष लेख “सब्जी भी औषधियां है” से साभार)
( शेष अगले अंक में)

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