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कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिका

लखनऊ/रेशु राज सोनी
वर्तमान समय में यह देखा जा रहा है कि शिक्षण सेवा क्षेत्र ने महिलाओ को अत्यधिक आकर्षित किया है। निश्चित अवधि तक कार्य, निश्चित नियम, राजनीतिक हस्तक्षेप का अभाव, सापेक्ष सुरक्षा आदि अनेक ऐसे कारक है जिससे महिलाओं का आकर्षण शिक्षण क्षेत्र की तरफ बढ़ा है। लेकिन कार्य की अनुकुलता और आकर्षण वेतन के साथ – साथ महिलाओ से जुड़ी शिक्षा का स्तर और पारिवारिक पृष्ठभूमि आदि कारक महिलाओं के समक्ष कार्य और परिवार का दोहरा दबाव उपस्थित करते है , अर्जित एवं प्रदत्त मूल्य तथा भूमिका के बीच की कामकाजी महिला किस प्रकार समंजन करती है ?
हमारे देश की आबादी का लगभग आधा भाग महिलाएँ है। संविधान में इन्हे पुरूषों के समान अधिकार दिए है किन्तु अनेक पूर्वाग्रह और लिगं – भेद के परिणाम स्वरूप अनेक असमानताओ का सामना करना पड़ता है। लगभग सभी महिलाओं को शोषण व हिसा का शिकार होना पड़ता है।
पितृसता ने महिलाओं को अपभोग की वस्तु माना है। पुरूषों ने महिलाओं के जीवन , अनकी योग्यता और उनकी कार्य शैली को निर्धारित करने चेष्टा की , लेकिन यथार्थ सत्य यह है कि महिला भी पुरूषो की भांति अपनी अलग पहचान रखती है वह अपने जीवन में उचित चुनाव करने की क्षमता रखती है। शिक्षा के प्रचार व प्रसार से देश मे शिक्ष्ति महिलाओ की संख्या निरन्तर बढ़ती जा रही है औंर पढ़ लिख कर नौकरियां करने लगी तथा कामकाजी महिलाओ का एक नया वर्ग चल गया । जिस समाज में महिला की कमाई को अनुचित समझा जाता था , उसी समाज में महिला की कमाई से घर चलने लगे । पति – पत्नि दोनों कमाते हैं , यह गर्व की बात समझी जाती हैं । देश में कामकाजी महिलाओं का इतिहास कोई बहुत पुराना नहीं है। यह स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय सविधान में स्वतंत्रता व समानता के सिद्धान्त से प्रभावित होकर महिलाओं में आत्मनिर्भरता के लिए जो नई सोच और नई चेतना पैदा हुई है , यह उसी का परिणाम है। महिला शिक्षा में प्रगति हुई उसी ने इस क्षेत्र में लोगों की उत्साहित किया । अच्छे जीवन स्तर की इच्छा की बल मिला , यह तो समय की आवश्यकता , परिवार की आवश्यकता , व्यक्तिगत अह्म की तुष्टि , समय व्यतीत करने की भी चाह आदि ऐसे कारण है जो कामकाजी महिलाओं का केन्द्र बिन्दू हैं।
अनेक अध्ययनों से यह प्रमाणित होता है कि कार्यरत महिलाओ के सामने मुख्य समस्या भूमिका सघंर्ष की है वे अपने आप को परिवार व कार्यालय के अनुसार कैसे समायोजित करती है। निम्न स्व प्रतिविम्ब और दोहरी भूमिकाएं कामकाजी महिलाओं के लिए भूमिका सधंर्ष पैदा करती है। जिसका प्रभाव परिवारिक सबंधो अपेक्षत भूमिकाओ पर पड़ता है। कामकाजी महिलाएं आज भी आर्थिक रूप से पुरूषो से मुक्त नहीं है क्योकि जो महिलाए अपनी परिवार की अर्थव्यवस्था मे योगदान करती है वे अपनी आय को अपनी इच्छानुसार व्यय करने के लिए स्वतत्र नहीं है। सामाजिक , नैतिक व मनोवैज्ञानिक आसामों में भी उसकी स्थिति पुरूषों के समान नहीं है। जिस प्रकार वह नौकरी करती है , घर का काम करती है , इन सबके प्रति उसकी निष्ठा उसके जीवन के स्वरूप के सन्दर्भ पर निर्भर करती है। और समाज द्वारा उसका मूल्यांकन बिल्कुल अलग परिप्रेल्य मे किया जाता है।
महिलाओं के कामकाजी होने का इतिहास बहुत पुराना नहीं है , पारतात्य देशों में ओघोगिक क्रान्ति के बाद इस प्रक्रिया में काफी तेजी आयी लेकिन भारत में यह प्रक्रिया अन्य देशो की तुलना में कुछ देरी से प्रारम्भ हुई। महिलाओं का कार्यक्षेत्र में प्रवश , उनकी आर्थिक आवश्यकता , आधुनिकीकरण एवं शिक्षा , आर्थिक विवशता , उपयोगी व उच्चतर जीवन स्तर अनेक कारणों से रहा होगा।
व्यवसायिक भूमिका और परम्परागत भूमिकाओं की एक साथ निभाना एक महिला के लिए प्राकृतिक व कृत्रिम रूप से बहुत कठिन हो जाता है। आज भी परिवार मं अनेक कार्य व भूमिकाएं है जिनके निर्वाह की पूरी जिम्मेदारी एक महिला की ही मानी जाती है। इस प्रकार एक कार्यरत महिला के लिए दोनो क्षेत्रो में समायोजन करना बड़ी समस्या उत्पन्न कर देता है।
निमकाक के अनुसार :- कई लोगो के लिए एक साथ विवाह और कार्य के उदेश्य को स्वीकार करना एक संघर्ष उत्पन्न कर सकता है , क्योकि दो प्रकार के उदेश्यों की सतुष्टि के लिए दो विभिन्न प्रकार के गुणो की आवश्यकता होती है।
एक कामकाजी महिला को अपने कार्यरत जीवन तथा माँ के रूप मे दोहरी भूमिकाओं के सघर्ष का सामना करना पड़ता है। एक तरफ अपने कार्यलय का कार्यभार और दूसरी तरफ माँ के रूप में सतांनो की देखभाल करना। इस प्रकार एक कामकाजी महिला अपने कार्य के साथ – साथ घर और परिवार की भी देखभाल करती है , फिर भी संघर्ष उत्पन्न होता है।
साहित्सिक समीक्षा :- वर्षा कुमारी द्वारा ओडिशा राज्य के ‘राउरकेला शहर‘ सार्वजनिक क्षेत्र के उधमों, बैंक, स्कूल व काँलेजो में कार्यरत महिलाएं जैसे विभिन्न व्यवसायिक क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं की समस्याओं और चुनौतियों का अध्ययन किया गया। अध्ययन में पाया कि विभिन्न आयु – वर्ग में एवं विशेष वर्ग की महिलाओं तथा विभिन्न क्षेणियों में कार्यरत महिलाएं जैसे अविवाहित महिलाएं , विवाहित महिलाएं , तलाकशुदा महिलाएं और परिव्यक्ता महिलाओं की समस्याओं व चुनौतियों में विभिन्नता पायी जाती है लेकिन इसके साथ ही निश्चित रूप् से कुछ सामान्य तरह की समस्याओं जैसे शरिरिक व मानसिक तनाव , नौकरी व परिवार के बीच उचित सन्तुलन की समस्या , परिवार की देखभाल व कार्यस्थल पर भेदभाव आदि का सामना करना पड़ता है।
सिन्हा रनाडे ( 1976) सिन्ध एंव साडे ने दिल्ली व बिहार की कामकाजी महिलाओं के सरकारी योजना के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किए , उन्होने पाया कि महिला कर्मचारीयों के स्वास्थ , उनकी भर्ती , उनके काम की स्थिति , काम के प्रकार और आर्थिक स्थिति के बारे में कोई अच्छा ध्यान नहीं दिया जाता उनके अनुसार महिला कर्मचारियों की आर्थिक , सामाजिक , शैक्षणिक स्थिति अच्छी नहीं थी।
सी . एम . पालविया और वी जगन्नाथ ( 1978) उन्होने उत्तर प्रदेश के ( कावल गाँव ) में कामकाजी महिलाओं के बारे में अपना शोध प्रस्तुत किया , कि आर्थिक रूप से शोषित महिलाएं जो ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्र में निवास करती हैं , उनका जीवन वास्तव में चिन्ताजनक है क्योकि उनको काम के लिए काफी दूर तक जाना पड़ता है। जिस कारण वे अपने परिवार को उचित समय नहीं दे पाती। जिससे परिवार की सामाजिक , आर्थिक व सास्ंकृतिक परिवेश पर सीधा नकारात्मक असर पड़ता है। अलग शोभा उपाध्याय , सौम्या पण्डित का अध्ययन मध्यम वर्ग की काम काजी महिलाओ की दोहरी भूमिका व्यवसयिक व सामाजिक भूमिका के अन्तर्सम्बन्ध पर केन्द्रित है। अध्ययन में पाया कि मध्यम वर्ग की महिलाएं अपने परिवारिक जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए कार्य करती है तथा महिलाओ द्वारा विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं के निर्वाह के फलस्वरूप् पारिवारिक जीवन में दबाव एंव तनाव में वृद्धि हुई है।
सुझाव :-
भारत का सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य कामकाजी महिलाओं को उचित व्यवसायिक वातावरण उपलब्ध नहीं करता। अतः सुझाव है कि सार्वजनिक निजी प्रतिष्ठानों में महिला सुरक्षा और आत्म सम्मान से जुड़ी आधारभूत प्रणाली का विकास किया जाये तथा संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के व्यवसायीक संतुष्टि हेतु उन्हें श्रम के अनुकूल वेतन मिलना चाहिए।
कामकाजी महिलाओं की स्थिति में गुणात्मक सुधार क्रियान्वित करने की दिशा में अनेक प्रयास करने चाहिए , जैसे प्रत्येक क्षेत्र में उनकी हिस्सेदारी व महिलाओं की नेतृत्वकारी भूमिका में वृद्धि करना। महिलाओं पर ही रही किसी भी प्रकार की हिंसा , उसका अंत कर उन्हे शान्ति के प्रत्येक पहलू और सुरक्षा सम्बन्धी तमाम प्रक्रियाओं में सम्मिलित करना।
अतः म्हिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र एवं समाज में होने वाली असुविधा को स्वयं दूर करना होगा। इसके लिए उसे सविंधान में वर्णित सभी अधिकारों का प्रयोग करना होगा , उनके द्वारा ऐसे सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक , राजनैतिक , सांस्कृतिक और शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण किया जाना चाहिए जिसके द्वारा वे समानता के स्तर पर आ सके और समाज में स्वतंत्र नागरिक की भाति अपने अधिकारों तथा अवसरो का प्रयोग कर सके।

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