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दहेज नारी शक्ति का अपमान है

वेब वार्ता (न्यूज़ एजेंसी)/ रेशु राज सोनी
लखनऊ 24 अप्रैल। माँ, बाप, बहिन और भाभियों से गले मिलती, पितृगृह की हर वस्तु को हसरत से निहारती, एक भारतीय बेटी की उपर्युक्त उक्ति किसके हृदय को द्रवित नहीं कर देती है।
“देहरिया पर्वत भई, आँगन भयो विदेस।
ले बाबुल घर आपनौ, हम चले बिराने देस।।”
कन्या के मन पर पराश्रयता और पराधीनता का यह बन्धन उसके विवाह के साथ ही बाँध दिया जाता है, जो एक जन्म तो क्या, जन्म–जन्मान्तरों तक नहीं खुल पाता।
महाकवि कालिदास ने अपनी विश्वप्रसिद्ध रचना ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ में महर्षि कण्व से कहलवाया है–”अर्थो हि कन्या परकीय एव।” अर्थात् कन्या पराया धन है, न्यास है, धरोहर है। न्यास और धरोहर की सावधानी से सुरक्षा करना तो सही है, किन्तु उसके पाणिग्रहण को दान कहकर वर–पक्ष को सौदेबाजी का अवसर प्रदान करना तो कन्या–रत्न के साथ घोर अन्याय है। आज दहेज समस्या कन्या के जन्म के साथ ही, जन्म लेने वाली विकट समस्या बन चुकी है। आज कन्या एक ऋण–पत्र है, ‘प्रॉमिज़री नोट’ है और पुत्र विधाता के बैंक से जारी एक ‘गिफ्ट चैक’ बन गया है।
दहेज की प्राचीन व वर्तमान स्थिति–
दहेज की परम्परा आज ही जन्मी हो, ऐसा नहीं है, दहेज तो हजारों वर्षों से इस देश में चला आ रहा है। प्राचीन ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है। वर्तमान स्थिति–प्राचीन समय में दहेज नव–दम्पत्ती को नवजीवन आरम्भ करने के उपकरण देने का और सद्भावना का चिह्न था। उस समय दहेज कन्या पक्ष की कृतज्ञता का रूप था। कन्या के लिए दिया जाने वाला धन, स्त्री–धन था, किन्तु आज वह कन्या का पति बनने का शुल्क बन चुका है। आज दहेज अपने निकृष्टतम रूप को प्राप्त कर चुका है। अपने परिवार के भविष्य को दाँव पर लगाकर समाज के सामान्य व्यक्ति भी इस मूर्खतापूर्ण होड़ में सम्मिलित हो जाते हैं।
कन्या पक्ष को हीन मानना–
इस स्थिति का कारण सांस्कृतिक रूढ़िवादिता भी है। प्राचीनकाल में कन्या को वर चुनने की स्वतंत्रता थी। किन्तु जब से माता–पिता ने उसको किसी के गले बाँधने का पुण्य कार्य अपने हाथों में ले लिया है तब से कन्या अकारण ही हीनता की पात्र बन गई है। वर पक्ष से कन्या पक्ष को हीन समझा जाने लगा है।
इस भावना का अनुचित लाभ वर–पक्ष पूरा–
पूरा उठाता है। घर में चाहे साइकिल भी न हो, परन्तु बाइक पाए बिना तोरण स्पर्श न करेंगे। बाइक की माँग तो पुरानी हो चुकी अब तो कार की मांग उठने लगी है। बेटी का बाप होना जैसे पूर्व जन्म और वर्तमान जीवन का भीषण पाप हो गया है।
दहेज के दुष्परिणाम–
दहेज के दानव ने भारतीयों की मनोवृत्तियों को इस हद तक दूषित किया है कि कन्या और कन्या के पिता का सम्मान–सहित जीना कठिन हो गया है। इस प्रथा की बलिवेदी पर न जाने कितने कन्या–कुसुम बलिदान हो चुके हैं। लाखों पारिवारिक जीवन की शान्ति को नष्ट करने और मानव की सच्चरित्रता को मिटाने का अपराध इस प्रथा ने किया है। तथाकथित बड़ों को धूमधाम से विवाह करते देख–छोटों का मन भी ललचाता है और फिर कर्ज लिए जाते हैं, मकान गिरवी रखे जाते हैं। घूस, रिश्वत, चोरबाजारी और उचित–अनुचित आदि सभी उपायों से धन–संग्रह की घृणित लालसा जागती है। सामाजिक जीवन अपराधी भावना और चारित्रिक पतन से भर जाता है। एक बार ऋण के दुश्चक्र में फंसा हुआ गृहस्थ अपना और अपनी सन्तान का भविष्य नष्ट कर बैठता है।
उन्मूलन के उपाय–
यह समस्या इसके मूल कारणों पर प्रहार किये बिना नहीं समाप्त हो सकती। शासन कानूनों का दृढ़ता से पालन कराये, यदि आवश्यक हो तो विवाह–कर भी लगाये ताकि धूमधाम और प्रदर्शन समाप्त हो। स्वयं समाज को भी सच्चाई से इस दिशा में सक्रिय होना पड़ेगा। दहेज–लोभियों का सामाजिक बहिष्कार करना होगा। कन्याओं को स्वावलम्बी और स्वाभिमानी बनना होगा।
दहेज कानूनों को चुनौती देते वधू–दहन तथा वधू संहार के समाचार आज भी समाचार–पत्रों में कुरूपता बिखेर दहेज विरोधी कानूनों का कठोरता से पालन होना चाहिए। जनता को जागरूक होकर और धर्माचार्यों को दक्षिणा का लोभ त्यागकर नारी के गौरव की पुनर्प्रतिष्ठा करनी चाहिए।
स्वयंवर–प्रथा फिर से अपने परिष्कृत रूप में अपनायी जानी चाहिए। कुलीनता और ऐश्वर्य के थोथे अहंकार से मुक्त होकर युवक–युवतियों को अपना जीवन साथी चुनने में सतर्क सहयोग देना माता–पिता का कर्तव्य होना चाहिए। अपव्यय और दिखावे से पूर्ण विवाह समारोहों का बहिष्कार होना चाहिए। इस कलंक से मुक्ति पाना भारतीय समाज के लिए कन्यादान से भी बड़ा पुण्य कार्य होगा।

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